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आलोचना

मीरा के पदों में लोक तात्विक तन्मयता

डॉ. महीपाल सिंह राठौड़


मीरा एक मात्र ऐसी भक्त कवयित्री है जिसने महलों के राज पाट का परित्याग कर जन मानस के भावों को आत्मसात करके भक्ति की सरिता प्रवाहित की। इससे उद्भासित होता है कि मीरा का जन मानस के प्रति असीम लगाव था। उनके पदों में लोक तत्वों का सूक्ष्म, सार्थक एवं चित्ताकर्षक वर्णन मिलता है। पदों में वर्णित लोक तत्वों के समुचित अध्ययन के अभाव में मीरा के काव्य का किया गया कोई भी मूल्यांकन अधूरा रहेगा इसमें कोई संदेह नहीं।

मीरा के अधिकांश पदों में आंचलिक लोक-गीतों को व लोक संगीत को समाहित किया है फलस्वरूप मीरा के पद इतने मधुर, सरस और जन मन के कंठहार बन सके।

मीरा के पदों में लोक जीवन एवं रीति-रिवाजों का सजीव वर्णन मिलता है। कन्या के विवाह योग्य होने पर माता-पिता योग्य वर की तलाश कर कन्या की सगाई तय करते हैं भावी वर को तिलक-दस्तूरी करते हैं जिसकी परंपरा अद्यतन समाज में विद्यमान है। गिरधर के संग मीरा की सगाई और विवाह का सजीव वर्णन मिलता है। विवाह के प्रसंग में सभी क्रमिक दस्तूरों का बड़ा ही सुंदर वर्णन है -

          "मीरा प्रभु गिरधरनलाल सूँ करी सगाई हाल"1

माँ के मन में यकायक मानने में नहीं आता कि बाई तुम तो बावरी हो दीनानाथ तुम से कैसे सगाई रचा सकते हैं। तो मीरा कहती है -

          "माई म्हाँने सुपना में परणी गोपाल
          गैली ये मीरा भई बावरी सुपनूँ छै आल जंजाल
          जू तूने सुपना में गिरधर मिलिया तो कछुक सैनाण बताय।"2

प्रत्युत्तर में मीरा कुछ ऐसे स्मृति चिह्नों का उल्लेख करती हैं जो दीनानाथ और उसके विवाह के प्रतीक के रूप में उपस्थित रही हैं -

          "हलदी तो पीठी म्हारे अंग लिपटाई मँहदी सूँ राच्या म्हारा हाथ
          छप्पन कोट जादू जान पधार्या दूल्हो श्री नंदकँवार
          सेविरिया सिरपेच कलंगी सोरठड़ी तरवार
          मीरा के प्रभु गिरधर नागर पूरबले भरतार"3

विवाह के अवसर पर कुमारी कन्या के पीठी (उबटन) की जाती है। भाँवरे लेने पर हाथों में मेहँदी लगाई जाती है उसी का वर्णन मीरा ने अपने इस पद में किया है। तोरण वंदना के लिए दूल्हा जब सज-धज कर आता है तो उसकी साज-सज्जा में सिर पर केसरिया साफा, उस पर सेहरा, सिरपेच व कलंगी सुशोभित होती है। और हाथ में सोरठड़ी तलवार। इसी का तुलनात्मक वर्णन हमें इसी अवसर पर गाए जाने वाले लोक गीत में इस प्रकार मिलता है -

          "बागो तो सोवै आपने केसर्यां जी महाराज
          ऊपर तो पचरंग पाग"4

स्वप्न में ही नंदकँवर छप्पन करोड़ यदुवंशियों की बारात लेकर मेरे से ब्याह रचाने आए हैं। स्वप्न में ही तोरण वंदना की है, स्वप्न में ही भाँवरें ली और इस प्रकार मैंने अक्षय सुहाग को प्राप्त किया। मेरे गिरधारी ने काँकड़ की सींव में आते ही ऊँटों को 'झेकाया'5 और तंबुओं में जहाँ बारात का डेरा दिया गया है वहाँ पधार गए -

          "तंबुवा दिए हैं तनाय पिय म्हारो गिरधारी
          तोरण आयो राणा राजई सजनी म्हारी।"6

केसरिया 'बागा' बड़ा सुंदर लग रहा है और माथे पर पचरंगा साफा, हाथों में हीरों से जटित 'सेलड़ो'7 और पीठ पर गेंडे की 'ढाल' धारण किए हुए हैं। पैरों में लाखीणी जूतियाँ हैं -

          "बागौ तौ सोवे केसर्यां रे मन मान्याजी
          काँई माथे पचरंग पाग। मारे...।
          काँई हाथ हीरा जड़्यौ सेलड़ो रे मन मान्याजी
          काँई असल गेंडारी ढाल"8

मीरा के साँचे प्रियतम किसी वीर क्षत्रिय नायक से किसी भी रूप में कम नहीं दिखाई दे रहे हैं। मीरा के गिरधारी में तत्कालीन समाज के वीरोचित्त संस्कारों से युक्त एक दूल्हे की जो वेश भूषा है। उसका सुंदर विवेचन मिलता है जो लोक गीत की इन पंक्तियों में भी सुंदर रूप से वर्णित है -

          "बागो तो सोवे आपने केसर्यां जी
          ऊपर पचरंग पाग"9

भाँवरे में हथलेवा जोड़ते समय शालग्राम मेरे प्रिय हैं दूसरे से यहाँ कोई सरोकार नहीं। हथलेवा तो मैंने आपसे जोड़ा है और मैं आपकी पटराणी हूँ मेरा पीहर मेड़ता है।

जन मानस में 'राज' के घर पधारने पर सुहागिनें मंगल गान करती हैं, मोतियों से चौक पुरवाती हैं और रुपये न्यौछावर करती हैं।

लोक संस्कृति में परदेश गए प्रियतम को संदेश भेजने के लिए पक्षी, पवन या बादल प्रमुख वाहक रहे हैं। कालिदास के 'मेघदूत' में यक्षिणी यक्ष को अपना संदेश मेघ के माध्यम से भेजती है। कुरज (विदेशी पक्षी), सूवा, कौवा संदेश ले जाने वाले प्रमुख वाहक हैं प्रतीक्षा में बैठी मीरा भी अपने 'साँवरे' को न आने का 'ओळमा' (उलाहना) सूवे के माध्यम से भेजती हैं -

          "क्यां कर लिखोला सलाम क्यां पर तो करड़ा ओळमा।
          सूआ चूँचाँ पै लिखूँली सलाम पंखा पै करड़ा ओळमा"10

इन्हीं भावों को अपने में समेटे हुए 'कुरजां' नामक लोक गीत की ये पक्तियाँ द्रष्टव्य हैं -

          "आवौ कुरजां बैठो म्हारे पास
          अेक संदेसौ ये कुरजां ले उडौ सा
          मुखड़ा स्यूं बोल्यौ नीं जाए
          पांखड़ल्या पर लिखद्यौ डोडा ओळमा सा साईना ने"11

सूवा जब द्वारका जाने के लिए तैयार हो जाता है तो मीरा केसर से उसे 'चरचराने' का निमंत्रण देती है -

          "बाग ही में आव सूवा फूलड़ा सुँघाऊँ रे,
          केसर भरियो बाटको सूवा अंग चरचाऊं रे"12

मीरा ने अपने गिरधर से सच्चा प्रेम किया है और इस प्रेम की राह पर चलना 'खांडा की धार' है। वह कृष्ण से अपने घर का ठिकाना बता रही है कि आप मेरे घर पधारो। आपके पधारने की प्रतीक्षा में सखियाँ मंगल गान करेंगी, मैं मोतियों से चौक पुराऊँगी और तन-मन आप पर न्यौछावर कर दूँगी -

          "म्हारै घराँ पधारो गिरधर मंगल गावै नारी
          मोती चौक पुराऊँ बाल्हा, तन मन तो पर वारी"13

यदि तुम मेरा नाम नहीं जानो तो पता बता दूँ हमारी 'पोळ' सूर्याभिमुख है वही मेरा ठिकाना है। चौक में चंदन का निशान है और आँगन में तुलसी का बिड़ला है जिसके हरी-हरी पत्तियाँ लगी है वही मेरा घर है लोक गीतों में नायिका अपने नायक से अपना पता बताने पर या अपने निवास का वर्णन आने पर उसका प्रवेश द्वार (पोळ) पूर्व दिशा में होने का उल्लेख करती हैं जो शुभ माना जाता है -

          "जो तू मेरो नाम न जाने मेरा नाम दिवाना
          सूरज सामी पोर हमारी चंदन चौक निसाना है
          हमारे अँगना में तुलसी का बिरवा जाके हरे हरे पांना।"14

श्रावण में सभी प्रिया अपने प्रिय के साथ हैं परंतु गिरधर मीरा से जो 'कोल' (वचन) करके गए कि शीघ्र लौटूँगा अभी तक लौटे नहीं है -

          "सावण आवण कह गया रे बाला करि गया कोल अनेक
          गिणतां गिणतां घसि गई सजनी आँगळियां री रेख"15

प्रतीक्षा करते-करते, दिन गिनते-गिनते मेरी हाथों की अँगुलियों की रेखाएँ ही घिस गई आखिर गिरधर कब आएँगे। प्रस्तुत मीरा के पद से भाव साम्य रखने वाला एक लोक गीत जो सावण के महीने में हमारे यहाँ गया जाता है -

          "सावण आवण कह गया कर गया कोल अनेक
          गिणता गिणता घस गई म्हारै आंगळिया री रेख"16

लोक गीत की इन पक्तियों पर अपभ्रंश के दोहे का प्रभाव है। पद और लोक-गीत के भाव का अनूठा सांमजस्य और किसी भक्त कवि के पद में नहीं मिलेगा।

गिरधर से मिलन होने की उत्सुकता में मीरा अपने जोशी से पंचांग निकलवाकर पूछती है कि मेरे 'रामजी' का मिलन कब होगा?

          "बूझौ-बूझौ नै पिंडत जोसी मोरा राम मिलन कब होसी।"17

शरीर के विभिन्न अंग प्रत्यंगों का फड़कना अपने प्रिय के मिलन को इंगित करता है। आँख व भुजा का फड़कने की मान्यता आज भी अंचल में मौजूद है -

          "मेरी आँख फरुकै बांई मोहि साध मिलै कै सांई!"18

वह कौवे को उड़ाती है कि तुम शीघ्र श्याम के आने की खबर लेकर आवो मैं तुम्हारी सोने की चोंच मढ़वा दूँगी और रूपा की दोनों आँखें -

          "सरवरिया री ऊँची नीची पाल क मुखड़ो जोवती
          उड़ि-उड़ि म्हारा बन का रे काग स्याम थारी पाँखड़ी
          रामजी मिलन कब होय फरुकै म्हारी आँखड़ी
          उड़ि-उड़ि म्हारा ऊँ सरवरिया रा हंस सुरंग थारी पाँखड़ी
          सोने मंढाऊँ थारी चूँच रूपां की दोई आँखड़ी"19

वर्णित पद की भाव साम्यता एक लोक गीत में इस प्रकार है -

          "अंबा मोरि ये आंखड़ली फरुक ये
          काग करुक कोटड़्यां"20
          उड-उड रे म्हारा काळा रे कागला
          कदै म्हारा साजन घर आसी
          जद म्हारा साजन घर आसी
          सोना री थारी चूँच मंडवाद्यूं
          रूपा री थारी पाँख लगवाद्यूं
          जद म्हारा पीव जी घर आसी21

मीरा की लोक मानस में प्रचलित शकुनों के प्रति कितनी गहरी आस्था है विरह की घड़ी में भी वह सहज भावों में प्रियतम से मिल पाने का संदेश प्राप्त करने को तैयार है। राजस्थानी जन मानस में सोन चिड़िया (रूपांरेल) को शकुन शास्त्र में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। शकुन शास्त्र के ज्ञाता सोन चिड़िया की बोली को समझते थे और इससे भविष्य में घटित होने वाली घटना का शीघ्र पूर्वानुमान दे देते थे। मीरा भी सोन चिड़िया से शकुन का शुभ संकेत पाने के लिए प्रतीक्षारत है और अच्छे शकुन मिलने पर वो उसे सोने की चोंच मंडवाने का 'कोल' करती हैं -

          "उड़ि जावो री म्हारी सोन चिड़ी
          काहे सूँ मँढ़ाऊँ थारी आँख पाखड़ी
          काहे सूँ मँढ़ाऊँ थारी चोंचड़ली
          रूपां सूँ मँढ़ाऊँ थारी आँख पांखड़ी
          सोना सूँ मँढ़ाऊँ थारी चोंचड़ली
          कह म्हारी चिड़िया सुगन री बातां
          कद आवैला म्हारा स्याम धणी"22

मंदिर में पधारने का आमंत्रण मीरा देती है कि श्याम आपके लिए सोने की थाली में 'मैंने भोजन परोसा है और सोने की झारी में गंगाजल पानी।

          "मंदिर पधारो श्याम! मन भगती में
          सोने की थाली में भोजन परोसो
          धीरे धीरे जीमो श्याम। मन भगती में
          सोने की झारी में गंगाजल पानी
          धीरे धीरे पीवो श्याम! मन भगती में"23

बड़े स्नेह से जीमण करवाऊँगी फिर आप क्यों नहीं पधार रहे हैं, शीघ्र पधारिए।

मारवाड़ में किसी भी मांगलिक अनुष्ठान पर लापसी24 मिष्टान्न बनाने की सुदीर्घ परंपरा रही है इष्ट देवी-देवता के इस मिष्ठान का भेाग लगाकर फिर प्रसाद ग्रहण किया जाता है। मीरा ने अपने काव्य में केवल आंचलिक रीति रिवाजों का ही सजीव वर्णन नहीं किया अपितु जन मानस में मांगलिक अवसर पर बनाए जाने वाले मांगलिक मिष्ठान का भी सरस वर्णन किया है इससे परिलक्षित होता है कि मीरा को जन मानस के खान-पान की कितनी सूक्ष्म जानकारी थी -

          "तन चोखो मन लापसी ने नैणां घी की धार"25

'मारू' के मिलन की बेला पर गुलाबी बेल बूंटीदार चुनरी ओढ़ने की उत्सुकता है-

          "हरिया कंद की चुंदड़ी रे बूंटी लाल गुलाल"26

मेड़ता व मेवाड़ अंचल में गणगौर पूजन की विशिष्ट परंपरा आज भी जन मानस में विद्यमान है जितने उत्साह और उमंग से महिलाओं में यह त्यौहार मनाया जाता है उतना दूसरा नहीं। कुमारी कन्याएँ भावी वर पाने के लिए व सुहागिनें अक्षय सुहाग की कामना से ईसर और गौरी का पूजन करती हैं। मीरा ने भी गणगौर का वर्णन किया है -

          "रे साँवलिया म्हारे आज रँगीली गणगौर छे जी
          काली पीली बादळी में बिजल़ी चमके मेघ घटा घनघोर छे जी"27

ब्रज और कुँवर कन्हैया व उनकी गोपियाँ अपनी रास लीला व होरी के लिए जगत प्रसिद्ध हैं। होरी के पर्व पर कन्हैया के साथ होरी खेलना मीरा का भक्ति रस में सराबोर होना है। मीरा होरी खेल कर रंग भीगने पर अपने को सौभाग्यशाली मानती हैं। कन्हैया से होरी खेलने के लिए राधे प्यारी पिचकारी लेकर आई है -

          "होरी खेलन को आए राधे प्यारी हाथ लिए पिचकारी
          कितने बरस के कुँवर कन्हैया, कितने बरस की राधा प्यारी
          सात बरस के कुँवर कन्हैया बारा बरस की राधा प्यारी"28

लोक मानस के रंग में सिक्त एक होरी का उदाहरण देखिए अद्भुत सांमजस्य है -

          "खेलण घर आवौ रसिया जब होरी
          हाँ-हाँ जब होरी
          किता रे बरस रा कुँवर कन्हैया
          किता रे बरस री राधा राणी
          जब हो..."29

मीरा का नख शिख श्रृंगार भी जन मानस की नायिका के कितना समीप है। जिसकी आब सदैव बनी रहती है - हतफूल, बाजूबंद री लूम, चुड़ला री चूँप, अँगिया री लूम, हिवड़ा रो हार बिचली लाल, झूमर री लूम, काजळ, व तिलक सभी के प्रति आज भी महिला वर्ग में कितना चाव है।

          "म्हारै भाव भगति का कंकण वण्यां, सांवलड़ो हे म्हारै हतफूल
          म्हारै सील को बाजूबंद थिरक रह्यो, सांवलड़ो हे बाजूबंद री लूम।
          म्हारै च्यारूँ जुग चुड़लो बण्यूं, सांवलड़ो हे चूड़ला री चूंप।।
          म्हारै जप तप अँगियां भली बणी, सांवलड़ो हे अँगियां री लूम।।
          म्हारै तन को तिमण्यो बण्यो, सांवलड़ो हे हिवड़ा रो हार।"30

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि राजस्थान की लोक संस्कृति में व मीरा के काव्य में अद्भुत भाव सामंजस्य है। मेड़ता अंचल के लोक गीतों के गेय तत्व व भाषा शैली को मीरा ने अपने काव्य में आत्मसात ही नहीं किया अपितु उन गीतों को सजीव रूप में अपने पदों में वर्णित किया है।

इन लोक तत्वों का अध्ययन करने के पश्चात ही मीरा के काव्य का समुचित अध्ययन किया जा सकता है क्योंकि मीरा लोक निधि है। और लोक निधि को लोक तत्वों से ही जाना जा सकता है।

संदर्भ

1. मीरा बृहत्त पदावली भाग-1, हरिनारायण पुरोहित, पद (सं.) 377 राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर सन-1984

2. वही, पद संख्या-378

3. वही, पद संख्या-378

4. मेड़ता अंचल के सांस्कृतिक, लोकगीत : जयपाल सिंह राठौड़, सुधन प्रकाशन, जोधपुर सन 1998 पृष्ठ संख्या-11

5. झेकावा - ऊँट को बैठाकर उससे सवार का नीचे उतरना।

6. मीरा बृहत्त पदावली भाग-1 हरिनारायण पुरोहित, पद संख्या-429

7. सेलड़ा - बरछा, भाला।

8. मीरा बृहत्त पदावली भाग-2 राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर सन-1975, पृष्ठ संख्या-108

9. लोक देवता पाबूजी : डॉ. महीपाल सिंह राठौड़, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, सन-2012, पृष्ठ संख्या-33

10. मीरा बृहत्त पदावली भाग-1 हरिनारायण पुरोहित, पद संख्या-203

11. शोधकर्ता के निजी संग्रह से।

12. मीरा बृहत्त पदावली भाग-1 हरिनारायण पुरोहित, पद संख्या-84

13. वही, पद संख्या-218

14. वही, संख्या-218

15. वही, पद संख्या-218

16. मेड़ता अंचल के सांस्कृतिक लोक गीत: जयपाल सिंह राठौड़, पृष्ठ संख्या-57

17. मीरा बृहत्त पदावली भाग-2 पृष्ठ संख्या-58

18. वही पृष्ठ संख्या-58 व 11

19. मीरा बृहत्त पदावली भाग-1 हरिनारायण पुरोहित, पद संख्या-597

20. शोध कर्ता के संग्रह से।

21. शोध कर्ता के संग्रह से।

22. मीरा बृहत्त पदावली भाग-1 हरिनारायण पुरोहित, पद संख्या-45

23. वही संख्या-370

24. लापसी - गेहूँ को दलकर उसे घी में भूना जाता है उसके पश्चात उसे पानी व गुड़ के साथ सिजोया जाता है मेवा डाल कर, घी की धार मिलाकर चाव से खाया जाता है।

25. मीरा बृहत्त पदावली भाग-2 पृष्ठ संख्या-67

26. मीरा बृहत्त पदावली भाग-1 हरिनारायण पुरोहित, पद संख्या-137

27. वही, पद संख्या-549

28. वही संख्या-658

29. राजस्थान का होरी एवं लूर साहित्य : डॉ. जयपाल सिंह राठौड़ सुधन प्रकाशन जोधपुर, सन-2002, पृष्ठ संख्या-64

30. मीरा बृहत्तपदावली भाग-1 हरिनारायण पुरोहित, पद संख्या-434

पत्र-पत्रिकाएँ

1. मीरा के भक्तों के भजन : मनोहर शर्मा का आलेख शोध पत्रिका, जून-1952, साहित्य संस्थान, राजस्थान विश्व-विद्यापीठ, उदयपुर पृष्ठ संख्या-175 से 194

2. मीरा बृहत-पद संग्रह : कुछ संपादकीय स्खलन प्रो. शंभु सिंह मनोहर का आलेख शोध पत्रिका अप्रेल-1965 साहित्य संस्थान, राजस्थान विश्व विद्यापीठ, उदयपुर पृष्ठ संख्या-32 से 38

3. लूर : मीरा विशेषांक संपादक डॉ. जयपाल सिंह राठौड़ जुलाई-दिसंबर, 2003, गोपालबाड़ी, चौपासनी, जोधपुर संपादकीय


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